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Saturday, January 19, 2008

कहर का जवाब कूची

साहित्य, कला और आतंक: बहस

चित्रकार मंजीत बावा इन दिनों कोमा में हैं। उनकी कुछ कृतियां ऐसी भी हैं जिनके विषय मनुष्य-मनुष्य और पशु-पशु के बीच शांतिपूर्ण तथा सह-अस्तित्व से सरोकार रखने वाले हैं।

बावा ही क्यों, जिंदगी और उससे जुड़े सर्जनात्मक सरोकारों के समर्थन में ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिन्हें चित्रकारों ने अपने विषय में शामिल किया है। निश्चित रूप से इनमें आतंकवाद और उससे जुड़ी घटनाएं शामिल हैं।

अफगानिस्तान में आतंक के हिमायतियों ने बुद्ध की अद्भुत और विशालकाय प्रतिमाओं को जब तोपों से उड़ाया तब सैकड़ों चित्रकारों ने बुद्ध की इमेज और उनके विचारों को कैनवास पर उतारा। सृजनधर्मियों का विरोध दर्ज करने का यही ढंग होता है। हालांकि यह प्रतिकार आंदोलन की शक्ल में नहीं था। बल्कि अपने-अपने स्टूडियों में खामोशी से चित्रकारों ने यह काम किया। उस घटना के बाद अगले कई महीनों में लगने वाली चित्र कृतियों की अनेक प्रदशर्नियों में बुद्ध की छवि का लगातार मौजूद रहना इस तथ्य का प्रमाण है।

यही क्यों, पंजाब में जब आतंकवाद पंजे पसार चुका था तब रघु राय, दयानिता सिंह और अर्पणा कौर जैसे चित्रकारों ने अपने भीतर के भाववेगों को कैनवास के जरिए व्यक्त किया। अतुल देहिया के बहुत सारे कामों में आतंकवाद जैसा विषय प्रबलता से मौजूद है।

उन्होंने हवाई अड्डे, सिनेमाघरों और बाजारों में हुई आतंकी घटनाओं को कैनवास पर उतारा। चित्रकारों की यह फेहरिस्त खासी लम्बी है। आतंक की तमाम घटनाएं संवेदनशील चित्रकारों को लगातार विषय बनाने को आतुर करती रही हैं। फिर दहशत किसी भी शक्ल में क्यों न हो।

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