आम आदमी का भरोसा, लोकतंत्र की जीत
भास्कर विशेष. देश की आजादी की पहली अर्धशताब्दी के दौरान सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यही रही कि हमने संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को इसकी समस्त कमियों के बावजूद अब तक बनाए रखा है। आज वैश्विक समुदाय में हमारी अपने लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ-साथ एक समावेशी व आधुनिक सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने की वजह से अलग पहचान है।
हालांकि हमें अब भी इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि विकास के मोर्चे पर ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनसे निपटना बाकी है। लोकतंत्र के मायने निश्चित तौर पर लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना है।
‘सबके लिए स्वास्थ्य, सबके लिए शिक्षा, सबके लिए घर, सबके लिए रोजगार और सबके लिए सुरक्षा’ ही लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को केवल तभी हासिल किया जा सकता है, जब सत्ता प्रतिष्ठान में समाज के सभी वर्गो का उचित प्रतिनिधित्व हो।
हमारे लोकतंत्र के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इसे आम आदमी के लिए प्रासंगिक कैसे बनाया जाए। इस लिहाज से महात्मा गांधी का एक मार्गदर्शक सिद्धांत लोकतंत्र के बारे में यह विचार था कि सबसे कमजोर व्यक्ति के लिए भी सबसे ताकतवर व्यक्ति के समान अवसर होने चाहिए। इसलिए निर्णय लेने की प्रक्रिया को और अधिक समावेशी किया जाए जहां आम आदमी अपने जीवन संवारने के हिसाब से निर्णायक मत दे सके।
इसके लिए लोगों को नस्ल, जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर होने वाले विभेदीकरण से मुक्त करना होगा। अमीरों और गरीबों, सुविधा-संपन्न और अभावग्रस्त लोगों के बीच बढ़ती खाई से हमारा लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा, बल्कि यह तो सिर्फ हमारे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक तंत्र को अंदर ही अंदर खोखला करेगा।
आज लगता है कि हर कोई सैद्धांतिक रूप से इस बात के महत्व को समझ चुका है कि हमें अपनी संसद और विधायिकाओं में ज्यादा महिला सदस्यों की जरूरत है। यदि इसको लेकर कहीं कोई मतभेद हैं तो केवल इस बात को लेकर कि यह लक्ष्य कैसे पाया जाए। महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के लिहाज से यह बहुत जरूरी है कि हम उनके नागरिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर भी विचार करें।
हमारे लोकतंत्र के समक्ष एक और बड़ी चुनौती यह है कि हम अपने जस्टिस डिलेवरी सिस्टम को और प्रभावी कैसे बनाएं। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे नागरिकों के मौलिक अधिकारों को संरक्षित रखने और उन्हें आगे बढ़ाने में न्यायिक तंत्र की महती भूमिका है। आज भी धीमी न्याय प्रक्रिया के चलते लंबित केसों की बढ़ती ऐसे कई मसले होते हैं जहां आम आदमी को न्याय नहीं मिल पाता।
आदर्श तौर पर देखा जाए तो लोक संबंधी मामलों का प्रबंधन उन्हीं संस्थाओं के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए, जिन्हें संविधान ने इसके लिए जवाबदेह बनाया है और जिसके लिए, समग्र तौर पर वे ही लोगों के प्रति जिम्मेदार हैं। यह जवाबदेही ही है जो लोकतंत्र को बाकी शासन प्रणालियों से अलग करती है।
हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के तौर-तरीकों को लेकर जिस तरह हमारे लोगो में संदेह बढ़ता जा रहा है, हमारी संसद को इसका भी संज्ञान लेना होगा। देश के बाकी किसी भी संवैधानिक निकाय से ज्यादा यह संसद पर निर्भर है कि वह लोकंतत्र के प्रति लोगों का भरोसा बनाए रखे जो कि नागरिकों की जरूरतों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील तंत्र है।
सूचना के अधिकार, जिसे अब वैधानिक तौर पर मान्यता मिल गई है को बुनियादी सशक्तीकरण का औजार बनाना चाहिए, जो भ्रष्टाचार और शोषण के विरुद्ध भी काम करे। जैसा कि कहा गया है कि गुप्त जगहों से ही भ्रष्टाचार फलता-फूलता है।
लोकतंत्र की गुणवत्ता पर गौर करते हुए यह देखना चाहिए आम आदमी की चिंताओं को समझने के लिहाज से लोकतंत्र किस हद तक सफल हुआ है। हम में से से हर कोई यह मानता है कि समग्र विकास के अपने लक्ष्य को पाने के लिए अभी हमें लंबा सफर तय करना है।
अपने देश में हम जो कुछ भी पा सके हैं, यह सब कुछ लोकतांत्रिक ढांचे के तहत काम करके ही हुआ है। आज हमारे देश में कई युवा और जोशीले सांसद हैं जो हमारे दूसरे सांसदों से प्रतिभा के मामले में कम नहीं हैं। मौजूदा भारत की सबसे बड़ी पूंजी इसके युवा हैं जो हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं। समय की यही दरकार है कि हमारी राजनीतिक प्रक्रियाओं से युवाओं का भरोसा उठने न पाए।
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