यह हरभजन की ही लड़ाई नहीं है
संपादकीय. सिडनी क्रिकेट टेस्ट मैच में फील्ड अंपायरों-स्टीव बकनर और मार्क बेंसन के पक्षपातपूर्ण फैसलों की बदौलत लगभग ड्रा हुआ मैच जीतने के बाद टीम ऑस्ट्रेलिया ने एंड्र्यू सायमंड्स के खिलाफ कथित नस्लवादी टिप्पणियां करने के लिए हरभजन सिंह पर तीन टेस्ट मैचों के लिए प्रतिबंध लगवाकर टीम माइंड गेम में अपनी महारत एक बार फिर साबित कर दी है। ऊल-जुलूल फब्तियां कसकर विरोधी टीम के खिलाड़ियों को उकसाने और उनका ध्यान भंग करने में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का कोई सानी नहीं है। हरभजन को उत्तेजित करने के लिए उन्होंने यही हथकंडा अपनाया। अगर उकसाए जाने पर हरभजन ने सायमंड्स के लिए कोई तीखी टिप्पणी कर भी दी, तो उसे नस्लभेदी करार दिया जाना कतई न्यायोचित नहीं है।
खेद की बात है कि मैच रेफरी माइक प्रॉक्टर ने इस मामले की सुनवाई में हरभजन के साथ दूसरे छोर पर खेल रहे असंदिग्ध निष्ठा वाले खिलाड़ी मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंडुलकर के पक्ष की सरासर अनदेखी की और केवल ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के पक्ष पर भरोसा करके मान लिया कि हरभजन ने सायमंड्स के लिए 'बिग मंकी' संबोधन का इस्तेमाल किया था। जाहिर है कि प्रॉक्टर का यह फैसला नैसर्गिक न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। ऐसे में भारत के क्रिकेट प्रतिष्ठान के सामने इस फैसले को ठुकराने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसे इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल समेत हर उचित मंच पर प्रॉक्टर के फैसले के प्रति कड़े से कड़ा विरोध जताकर हरभजन के लिए सही न्याय हासिल करने के प्रयास करने में जरा भी ढील नहीं देनी चाहिए।
इस मौके पर टीम इंडिया और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने हरभजन सिंह के साथ खड़े रहने का फैसला करके बिलकुल सही कदम उठाया है। वैसे भी अब यह महज हरभजन की लड़ाई नहीं रह गई है बल्कि टीम इंडिया और पूरे भारतीय क्रिकेट प्रतिष्ठान की अस्मिता की लड़ाई बन गई है। टीम ऑस्ट्रेलिया के बड़बोले खिलाड़ियों को न तो नस्लभेद की ठीक-ठाक समझ है और न ही कभी उन्हें इसके दंशों का शिकार होना पड़ा है जबकि हम भारतीयों ने न केवल नस्लवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी है बल्कि इसके शिकार अन्य देशों और लोगों को भी प्रेरणा दी है। यदि आईसीसी टीम इंडिया के ऑस्ट्रेलिया दौरे के शेष टेस्ट मैचों में हरभजन के खेलने पर रोक नहीं हटाती है, तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को दौरा रद्द करने का विकल्प खुला रखना चाहिए।
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