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Friday, January 11, 2008

फिल्मों में आतंक

साहित्य, कला और आतंक: बहस फिल्मकार आतंकवाद को एक फामरूले की तरह इस्तेमाल करते हैं और इसकी जड़ों में पहुंचने का प्रयास नहीं करते। सरकार और समाज की इस मामले में फामरूला सोच में पीड़ित है।मानव बम पर संतोष शिवन नेएक गंभीर फिल्म बनाई थी।

शेखर कपूर ने अपनी अंग्रेजी फिल्म ‘फोर फीदर्स’ में आधुनिक आतंकवाद की जड़ को ब्रिटिश साम्राज्यवाद में छुपा होने का संकेत किया था। इस अंतरराष्ट्रीय समस्या का गहन अध्ययन अभी तक किया नहीं गया है। सारे प्रयास सतही है। ‘असासीनस सांग’ नाम उपन्यास गंभीर प्रयास है।

करण जौहर आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर दो फिल्मों की योजना बना रहे हैं। एक फिल्म लंदन में बसे भारतीय मुसलमान की कहानी है जिसकी हिंदुस्तानी बीबी को मालूम पड़ता है कि उसका शौहर आतंकवादी है और लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे से एक प्लेन को हाइजैक करने की योजना बना रहा है। वह अपने शौहर के खिलाफ बगावत करती है और उसका घर छोड़कर चली जाती है। इस जुदाई की वजह से शौहर की आंखें खुलती है।

करण जौहर स्वयं जिस फिल्म को निर्देशित करने वाले हैं उस फिल्म के नायक शाहरूख खान है। अमेरिका में बसे इस भारतीय मुसलमान को 9/11 के बाद शक की निगाह से देखा जाता है। मणिरत्नम ने ‘रोजा’ भारतीय इंजीनियर को कश्मीर में अपहरण के शिकार होते हुए दिखाया था और उसकी नवविवाहिता सरकार से सहायता की दुहाई करती है।

मणिरत्नम की शाहरूख-मनीषा-प्रिटी जिंटा अभिनीत ‘दिल से’ में मनीषा उत्तरपूर्व के किसी प्रदेश की मानवीय बम है जो दिल्ली में 26 जनवरी के समारोह को ध्वस्त करना चाहती है इस फिल्म के नायक नायिका की पहली मुलाकात लद्दाख में हुई थीं। विनोद चौपड़ा की ‘मिशन कश्मीर’ में आतंकवादी के पुत्र को भारतीय पुलिस अफसर पाल पोसकर युवा करता है, परंतु वह भी गुमराह हो जाता है। आमिर खान अभिनीत ‘सरफरोश’ इस विषय पर बहुत ही सार्थक फिल्म थी।

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