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Thursday, December 6, 2007

ताजमहल

मुंबई. यह बात तो ख़ैर बहुत ज्यादा मशहूर हो चुकी है कि साहिर ने यह नज़्म एक नज़्म के जवाब में लिखी थी जो शकील बदायूंनी की कलम से निकली थी ‘इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल..’। इसके अलावा इस नज़्म पर तऱक्क़ीपसंद तहरीक़ का ठप्पा भी लगा दिया गया लेकिन, इस नज़्म का अपना एक अलग ही जादू है। एक ऐसा जादू जिसे किसी और पैमाने की ज़रूरत नहीं है।

इस नज़्म से यह साबित होता ही है कि उस दौर की बेहालियों, बदकारियों, बेमानियों और मुसीबतों में मुहब्बत किस कदर मुश्किल थी क्योंकि भूख और इज़्ज़त की ज़िंदगी का संघर्ष पहली ज़रूरत थी। उस दौर के नौजवानों को जीवन के सच और संघर्ष की तरफ मोड़ने के लिए भी इस नज़्म के लिए साहिर को धन्यवाद दिया जाना चाहिए। इस मकसद के लिए ताजमहल का चयन ठीक था या नहीं, इस पर तरह-तरह के दृष्टिकोण हो सकते हैं लेकिन यह मानना पड़ेगा कि अगर बड़ी हैसियत वाले के साथ लड़ाई की जाए तो जल्दी सबकी नजर जाती है और फिर लड़ाई के आधार भी ठोस हों तो शोहरत के साथ सबका साथ मिलते भी देर नहीं लगती।

एक ख़ास बात और इस नज़्म ने पूरे दौर का ध्यान खेंचा ही और इसे इतनी शोहरत मिली कि सुनील दत्त और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म ग़ज़ल में इसे थोड़ा बदलकर एक गीत के तौर पर इस्तेमाल किया गया। फिलहाल, आप इस नज़्म से रूबरू होकर इसका लुत्फ़ लीजिए..

नज़्म
ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्फ़त ही सही
तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी मेहबूब कहीं और मिलाकर मुझसे..

बÊमे-शाही में गरीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवते-शाही के निशां
उसपे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी

मेरी मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तश्हीरे-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबीर से बहलने वाली
अपने तारीक़ मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तश्हीर का सामान नहीं
क्यूंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारातो-मक़ाबीर ये फसीलें ये हिसार
मुत्ल-कुल्हुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मरे अजदाद का खूं

मेरी मेहबूब उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे श़क्ले-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबीर रहे बेनामो-नमूद
आज तक उनपे जलाई न किसी ने कंदील

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुऩक्क़श दरो-दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़..

मेरी मेहबूब कहीं और मिलाकर मुझसे.

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